सन चौरासी - काला अध्याय
सन चौरासी से पहले ,
पंच - प्यारों की धरती पर ,
प्यार - मुहब्बत की नगरी में ,
गूंजा नारा खालिस्तान का ।
कौन हिन्दू , मुस्लिम , सिख , ईसाई
परेशान थी बस सारी जनता ,
बिन जाने कौन किस मज़हब का ,
अलगांववाद था भारी सब पर।
टुकड़े हो भारत माँ के अब ,
हर तरफ़ बस यही था नारा ,
जाने किसके हिस्से में क्या हो ,
यही आग थी सीने में बस।
किसने जलाई चिंगारी ,
किसने सुलगाई आग ,
न तुमको पता , न मुझको पता
धधकी अंदर दिल में बरसों।
लावा बन विस्फ़ोट हुआ तब ,
सन चौरासी आया जब ,
काला अध्याय वो लाया संग।
हुकूमत का जो क़त्ल हुआ तब ,
भारी पड़ गया कौम पर सारी।
जाने कितने घर जले ,
न जाने कितनी बेवा हुई ,
जाने कितने बचपन छीन गये ,
न जाने कितने गबरू सो गये
मौत के आगोश में।
नफरतों के साये में
अक्सर पलते हैं दहशतगर्द।
हजारों जानें चली गई
मौत की काली आँधी में।
रंजिश की तलवारें खींच गई ,
कोई कहता नफ़रत थी वो ,
कोई कहता वक़्ती - गुबार ,
इंसानियत पर कहर था वो।
मानवता का अंत था वो।
न कोई धर्म था वहां
न ही कोई कौम
बस फैले थे दहशतगर्द।
और फैली थी बस लाशें।
मरता था हर रोज़ वहां
कभी तेरी आँखो का पानी
और
कभी मेरी आँखो का पानी।
हालात तब भी यही थे
हालात अब भी वही है
क्या बदला है बरसों में।
नफ़रत तब भी पोषित थी ,
नफ़रत अब भी पलती है ,
कभी तेरे दर पर
तो
कभी मेरे दर पर।
ये बस वक़्ती - जुनून कहलाता
आज है , कल न भी हो
या फिर
न ही कोई अंत हो।
इंतज़ार फिर से एक मसीहा का
करना होगा हम सब को।
वो राम भी हो सकता है
और रहीम भी
नानक भी हो सकता है
और क्राइस्ट ( ईसा ) भी।
हम और तुम नहीं हो सकते है ,
जहां पलती नफ़रत सीने में।
उम्मीद का दामन थामे बस
आज़ भी खड़े दौराहे पर
पीढ़ी - दर - पीढ़ी।
विस्फ़ोटक है शब्द मेरे ,
लेकिन अमन का है ये पैग़ाम ,
आम जन के जीवन में अब ,
न हो कोई काला अध्याय।।