Saturday, April 4, 2009

अनारकली..तुम ही हो जन्नत का द्वार..



कुछ दिनों पहले एक न्यूज़ चैनल पर अनारकली की दुःख भरी दास्ताँ बयां की गई ! उसको देख कर दुःख भी हुआ और एक नई सोच भी मिली ! कहा नहीं है अनारकली !!!!!!! सिर्फ महलों की दीवारों से ही सर टक्करा कर एक वही अनारकली नहीं मरी बल्कि आज अगर आप नजर उठा कर देखे तो हर गली- कुचे में किसी और अनारकली की सिसकिया सुनाई देने लगेगी !अनारकली महलों की चारदीवारी से निकल कर खासों - आम घरो के रस्ते से होते हुए झुगी - झोपडियों तक मिल जायेगी ! शहरों में ही नहीं गाव - गाव भी इन को देखा जा सकता है ! क्या हुआ अगर एक बादशहा अकबर ने अनारकली को इश्क करने की सजा दी तो आज हर पिता पर अकबर बनने का जूनून सवार है ! अनारकली का दर्द तब भी नहीं दिखाई दिया था किसी को और आज भी इसके दर्द का अंदाजा किसी को नहीं है ! उसके दर्द भरे दिल की आहट शायद कभी कोई नहीं सुन पायेगा ! लेकिन अगर मैंने महसूस किया है तो आप सभी में से भी कोई न कोई जरुर महसूस करेगा उस तकलीफ को , दर्द को ! इसी उम्मीद के साथ अपने शब्द आपके सामने रखने की हिमाकत कर रही हूँ कि शायद मेरे इन शब्दों से कोई और अनारकली जिंदा दीवार में न चुनवाई जाय ।
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अनारकली
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मोहव्वत का दर्द जो था उसके सीने में साथ ही लेकर ,
गुमनाम हो गयी वो कहा गयी ,
कोई नहीं जानता ,
आज भी ऐसी ही न जाने कितनी ही ,
अनारकली हमारे समाज में है !
क्या करते है हम उनके लिए !
सिर्फ , सुनते है उनका दर्द हँसते है और चले जाते है अपने आशियाने की ओर ,
और एक बार फिर रह जाती है वो तन्हा !
अपने ही इश्क के फ़साने में अंधेरो में जद्दोजहद करते हुए
कि किस तरह पहुचाऊ इसे परवान कैसे बचाऊ दुनिया की नजरो से
लेकिन हाय री किस्मत हाय रे बेमुरब्बत समाज
गुमनामी और इश्क एक ही सिक्के के तो दो पहलू है !
जरा सोचिये कहा नहीं है अनारकली ,
जरा नजरे उठा कर तो देखो हर तरफ है एक अनारकली रोती ,
घुटती , सिसकती हुई अपनी व्वथा अपने दिल में ही छिपाए !
कितनी ही हो जाती है विदा इस खुबसूरत दुनिया से !
कभी भ्रूण हत्या के रूप में तो कभी दहेज़ की बलि बन कर
और कभी माँ , बेटी बहन और पत्नी बन कर
परिवार की सारी बलाए अपने सर लेकर !
विदा कर दी जाती है इस जहाँ से उस जहाँ तक कह कर ये .........
तुम ही हो जन्नत का द्वार
और तुम ही हो नरक का द्वार भी

मंजु चौधरी

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